उन्मुक्त जीवन

 बचपन में एक एक खेलते थे जिसमें किसी के दोनों हांथों से ओठ पकड़ कर उससे बुलबाते थे कि कहो गाय गाय का बछड़ा गाय गुड़ खाये. इसमें गुड़ बोलते ही उसके ओठों को बंद कर देते थे जिससे गुड़ की जगह कभी गुड़ुप या कुछ उच्चारित हो जाता था. और दोनों खूब हसते थे. उस हंसी में जो उन्मुक्तता अल्हड़पन खुलापन और खुशी होती थी क्या वह खुशी आज जब हम सब बहुत कुछ प्राप्त करके पा पाते हैं. वो अल्हड़पन उन्मुक्तता क्या हम सबने अपने रख पायी. सब कुछ पाने के जनून ने बहुत हम सब से छीन लिया. साथ ही मौलिकता के अभाव ने तमाम बीमारियों ने भी घेर लिया. एक दिल के डा. का कथन याद आता है कि

खोल दिया होता जो दिल दोस्तों के सामने तो खुलता दिल यूं डाक्टरों के सामने


यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं हो सकता है कि लेखन में कोई त्रुटि हो या कोई असहमति हो उसके लिये क्षमा प्रार्थी

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